सीख -2 (कहानी) by indianculture1

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सीख -2 (कहानी)
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 अकेली क्यो रहती हो, क्या तुम्हारे घर में कोई नही हैं, शर्माजी की पत्नी ने पूछा।
 ' है क्यो नही, मेरे तीन लड़के थे, जिनमे से एक फ़ौज में था, जो पिछली साल शहीद हो गया। उसके बीवी बच्चे शहर में रहते हैं, बाकी के दोनों भी शहर में अपना अपना कारोबार करते हैं। बड़े वाले ने पिछले साल अपना खुद का बड़ा सा मकान बना लिया था, छोटे वाले के अभी बन रहा हैं। पोते पोतियां, बहुएं, सब हैं, मेरा आदमी कई साल पहले गुजर गया।'
 'तो फिर तुम यहाँ अकेली क्यो रहती हो, बेटे बहुओ के साथ रहती नही या वो रखते नही', शर्माजी की पत्नी ने बुढ़िया से पूछा।
  बुढ़िया बोली- ' नही बहिनजी, वो मुझे कई बार साथ चलने के लिए बोलते हैं, पर मैं ही नही जाती, मुझे यहां रहना अच्छा लगता हैं। वो अपने हाल में मस्त हैं, मुझे यहां से ले तो जाएंगे, पर मैं उनके अनुसार वहां नही रह पाऊंगी तो उनको परेशानी होगी। बहुएं भी शहर की हैं, मैं ठहरी गांव की गंवार ओरत, शहर में खुद को एडजस्ट नही कर पाऊंगी, फिर यहाँ आऊंगी तो ये आसियाना भी उजड़ जाएगा। ये मेरी छोटी छोटी चिड़ियों का साथ भी छूट जाएगा। वहां जाने से मेरी उनसे अपेक्षाएं बढ़ जाएगी, वो पूरी नही हुई तो मैं भी दुखी और वो भी दुखी, इससे अच्छा हैं, यहां अपने हाल में खुश रहूं।'
जीवन में दुखो का कारण ही अपेक्षाएं हैं, हमसे तो ये पशु पक्षी ही अच्छे, जो सन्तान को जन्म देते हैं, कितनी तकलीफ उठाकर उन्हें बड़ा करते हैं, जैसे ही बच्चे बड़े हुए, उनको अपना जीवन जीने के लिए आजाद छोड़ देते हैं, इनको कोई तकलीफ नही होती, क्योकि ये अपनी संतान से कोई अपेक्षा नही रखते। दूसरी तरफ हम इंसान हैं, जो बच्चों को बड़ा करके उनसे न जाने कैसी कैसी अपेक्षाएं पाल लेते हैं, जो बुढ़ापे में हमारे दुखो ला कारण बनती हैं। हम ये क्यो नही समझ पाते, कि बच्चों का अपना भी एक जीवन हैं, उनकी अपनी भी समस्याए और मजबूरियां हैं, वो अपना जीवन जियेंगे या हमारी सेवा में लगे रहेंगे।'
  बुढ़िया के शब्द शर्माजी की आत्मा को झकझोर रहे थे। वो अपनी ही धुन में न जाने क्या क्या बताए जा रही थी। शर्माजी सोचने को मजबूर हो गए, वाकई समझदार कौन ?
 मैं पढालिखा शहरी या ये बुढ़िया, जिसे हम जाहिल और गंवार मानते हैं।
 इस उम्र में अपने को कैसे सेटल किये हुए हैं, इन विपरीत हालातो में।
 इन पक्षियों में आपने को खुश रख लेती हैं, जबकि मैं इंसानों की भीड़ में अकेला हूँ।
मेरी अपेक्षाएं ही तो मुझे तकलीफ दे रही हैं। वरना बेटे बहु की बातें तो अपनी जगह पर बिल्कुल सही थी।
  अब वो जीवन में खुश रहने का राज जान चुके थे।
गॉव का मेकेनिक आया, गाड़ी को शहर तक जाने योग्य बना गया। पैसे का पूछा तो बोला, ' नही बाबूजी, ये मेरा कारोबार नही हैं, थोड़ा बहुत जानता हूँ, इसलिए इस सुनसान जगह पर तकलीफ में पड़े लोगो की सहायता कर देता हूं। मेरा असली काम तो खेतीबाड़ी हैं, जिससे मेरा आराम से गुजारा हो जाता हैं।
घर में खानेवाले हम दो मियां बीबी ही हैं, एक ही लड़का हैं, जो शहर में अफसर हैं। अपने परिवार के साथ वो शहर में खुश हैं। हम दोनों यहां खुश हैं।
  शर्माजी ने अपने आप में बहुत बड़ा बदलाव महसूस किया। अब वो पूरी तरह से नॉर्मल हो चुके थे।
  अब उनकी कॉलोनी में उनके बहुत से दोस्त बन चुके थे। अब वो अनेक वृद्ध आश्रमो में जाते और अपनी उम्र के लोगो के साथ बैठकर खुशहाल जीवन जिना सिख चुके थे।
 अपना अधिकतर समय दुसरो की सहायता करने में बिताते। जरूरत मन्द लोग बेहिचक उनके पास आते और शर्माजी उनकी यथासम्भव सहायता करते।
  बेटा बहु जब भी आते, वो उनको घुमाते, पोते के साथ समय बिताते, और खुशी उनको वापिस विदा करते।

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आपका ~ indianculture1



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